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जिनके लालाट-तल पर कुंकुम का त्रिकोणी तिलक लगा है, लगता है महादेव का तीसरा नेत्र ही खुल-कर देख रहा है। राहु की राह पर चलनेवाला है दल आमूल-चूल काली काया ले। क्रूर-काल को भी कँपकँपी छूटती है जिन्हें एक झलक लखने पात्र से ! . काठियावाड़ के युवा घोड़ों की पूंछ-सी ऊपर की ओर उठी मानातिरेक से तनी जिनकी काली-काली मूंछे हैं। . जिनके गठीले संपुष्टबाजुओं को देख कर प्रतापशाली भान का बल भी बावला बनता है। जिन बाजुओं में काले धागों से कसे निम्ब-फल बंधे हैं, अन्त-अन्त में यँ कहूँ कि जिनके अंग-अंग के अन्दर दया का अभाव ही भरा हैं। मुख हृदय का अनुकरण करता है ना !
प्रायः संपुष्ट शरीर दया के दमन से ही वनते हैं, तभी तो सन्तों की ये पंक्तियाँ कहती हैं : "अरे देहिन् ! द्युति-दीप्त-संपुष्ट देह
425 :: मूक माटी