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दाइती आएगी रूखी लहर, मानवता के पतन की दुर्गन्ध
और नाजुक नथुनों को, नापाक कर मुच्छित कर देगी ! इस पर भी, रोष को तोष नहीं मिला कुछ और कहता है स्वर्ण-कलश चिन्ता से घिरी गम्भीर मुद्रा में
“इसे कलिकाल का प्रभाव ही कहना होगा किंवा अन्धकार-मय भविष्य की आभा,
मौलिक वस्तुओं के उपभोग से विमुख हो रहा है संसार ! और लौकिक वस्तुओं के उपभोग में
प्रमुख हो रहा है, धिक्कार ! झिलमिल-झिलमिल करती मणिमय मालाएँ मंजुल-मुक्ता की लड़ियाँ, झारझुर झुरझुर करते अनगिन पहलूदार उदार हीरक-हार, तोते की चोंच को लजाते गूंगे-से मूंगे, नयनाभिराम नीलम कं नगजिन्हें देख कर मयूर-कण्ट की नीलिमा नाच उठती है,
मूक माटी :: 4]]