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रीढ़ में मलना भी दाह कं शमन में रामवाण माना है। बुध-सम्मत इन उचित-उपचारों को उपेक्षित कर माटी-कर्दम का लेप करना बुद्धि की अत्पता है ही।
भोजन-पान के विषय में भी ऐसा ही कुछ घट रहा हैस्वादिष्ट-बलवर्धक दुग्ध का सेवन,
ओज़-तेन-विधायक घृत का भोजन अकाल-मरण-वारक सास्थिक शान्त-भाव-सजक दधि निर्मित पक्वान्न आदि बहुविध व्यंजन उपेक्षित हुए हैं, उसी का परिणाम है कि दाह-रोग का प्रचलन हुआ है जिससे संठ जी भी घिर गये हैं
और सत्व-शन्य ज्वार की दलिया के साथ सार-मुक्त छाट का सेवन
दरिद्रता को निमन्त्रण देना है। एक बात और कहना है कि धन का मितव्यय करो, अतिव्यय नहीं अपव्यय तो कभी नहीं, भून कर स्वप्न में भी नहीं। और अव्यय हो तो 'सयोत्तम ! या जो धारणा है वस्तु-तत्व को छूती नहीं,
411 :: एक माटी