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कारण किं यथार्थ दृष्टि से प्रति पदार्थ में
उतना ही व्यय होता हैं
जितनी आय,
और
उतनी ही आय होती है
जितना व्यय ।
आय और व्यय
इन दोनों के बीच में
एक समय का भी अन्तर नहीं पड़ता
जिससे कि
संचय के लिए श्रय मिल सके।
यहाँ पर
आय-व्यय की यही व्यवस्था अव्यया मानी गई है, ऐसी स्थिति में फिर भला अतिव्यय और अपव्यय का प्रश्न ही कहाँ रहा ?
क्या हमारे पुरुषार्थ से
वस्तु तत्त्व में परिवर्तन आ सकता है ?
नहीं नहीं, कभी नहीं ।
हाँ! हाँ !
परिवर्तन का भाव आ सकता है
श्री अनिर
हमारे कलुषित मन में ।
और
अहंभाव ।
यही है संसार की जड़, इससे यही फलित हुआ कि सिद्धान्त अपना नहीं हो सकता सिद्धान्त को अपना सकते हम ।"
मूकमाटी 415