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जब भोक्ता रस का स्वाद लेता है. ताड़-प्यार से लार का सिंचन कर रस को और सरस बनाती है रसना के मिष प्रकृति भी। लीला-प्रेमी द्रष्टा पुरुष अपनी आँखों को जब पूरी तरह विम्फारित कर दृश्य का चाव सदशन करता ह............ तब, क्या ?" प्रमत्त-विरता प्रकृति सो पलकों के बहाने
आँखों की बाधाओं को दूर करती पल-पल सहलाती-सी"! पुरुष योगी होने पर भी प्रकृति होती सहयोगिनी उसकी, साधना की शिखा तक साथ देती रहती वह, श्रमी आश्रयार्थी को आश्रय देती ही रहती सदोदिता स्वाश्रिता हो कर !
यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं है कि पुरुष में जो कुछ भी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ होती हैं, चलन - स्फुरण - स्पन्दन, उनका सवका अभिव्यक्तीकरण, पुरुष के जीवन का ज्ञापन प्रकृति के ऊपर ही आधारित है। प्रकृति यानी नारी
392 :: मूक माटी