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स्था और सामु निक्षती . . . . .. . वाणी का नामकरण एक ही क्यों ? ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। एक-सी लगती है, पर एक है नहीं वह । यहाँ पात्र के अनुसार अर्थ-भेद ही नहीं शब्द-भेद भी है।
सज्जन-मुख से निकली वाणी 'वै' यानी निश्चय से 'खरी' यानी सच्ची है, सुख-सम्पदा की सम्पादिका। मेय से छूटी जल की धारा इक्षु के आश्रय पा कर क्या मिश्री नहीं बनती ? और दुर्जन-मुख से निकली वाणी 'वे' यानी निश्चय से 'खली' यानी धूर्ता-पापिनी है, सारहीना विपदा-प्रदायिनी वही मेघ से छूटी जल-धारा नीम की जड़ में जा कर
क्या कटुता धरती नहीं ? यहाँ पर 'ली' के स्थान पर 'री' का प्रचलन हुआ है प्रमाद या अज्ञान से,
मूक पाटी :: 403