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श्वास को भीतर ग्रहण करना है
और नासिका से निकालना है
ओंकार-ध्वनि के रूप में। यह शकार-त्रय ही स्वयं अपना परिचय दे रहा है कि 'श' यानी कषाय का शमन करने वाला, शंकर का द्योतक, शंकातीत, शाश्वत शान्ति की शाला! 'स' यानी समग्र का साथी जिसमें समष्टि समाती, संसार का विलोम-स्वरूप सहज सुख का साधन समतों का अजसोत! . . . . . ... .
और 'ष' की लीला निराली है। प के पेट को फाड़ने पर 'ष' का दर्शन होता है'प' यानी पाप और पुण्य जिनका परिणाम संसार है, जिसमें भ्रमित हो पुरुष भटकता है इसीलिए जो पुण्यापुण्य के पेट को फाड़ता है 'ष' होता है कर्मातीत । यह हुआ भीतरी आयाम, अब बाहरी' भी सुनो !
3SIN :: मूक माटी