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यह भी एक नियोग कि सुजन का प्यार कभी सुरा से हो नहीं सकता। विधवा को अंग-राग सुहाता नहीं कभी सधवा को संग-त्याग सुहाता नहीं कभी, संसार से विपरीत रीत विरलों की ही होती है भगवाँ को रंग-दाग सुहाता नहीं कभी !
कुम्भ की भाव-भाषा सुन कर. ऐसा प्रतीत हुआ सेठ को, उस क्षण कि साधुता का साक्षात्
आस्वादन हो रहा है। खार की धार से अब क्या अर्थ रहा ? सार के आसार से अव क्या प्रयोजन ? सोये हुए सब-के-सब सार के स्रोत जो समक्ष फूट पड़े" अहो भाग्य ! धन्य !!
कुम्भ के विमल-दर्पण में सन्त का अवतार हुआ है और
354 :- मूक पाटी