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जर आँस्ने लगती हैं तो दुःख दती हैं ! आँखों में सुख है कहाँ ? य आँखें दुःख की खनी हैं सुरन की हनी हैं यही कारण है कि इन आँखों पर विश्वास नहीं रखते सन्त संयत साधु-जन और सदा-सर्वथा चरणों लखते बिनीन-दृष्टि हो चलते हैं
''धन्य ।
फिर भी, खेट की बात यह है कि आँखें ऊपर होती हैं और चरण नीचे ! ऊपर वालों की शरण लेना ही समुचित हैं, श्रेयस्करऐसी धारणा अज्ञानवश बना कर पूज्य बनने की भावना ले कर आँखों की शरण में कुछ रजकण चले जाते हैं। पृज्य बनना तो दूर रहा, उनका स्वतन्त्र विचरण करना भी लुट जाता है."खेद ! आँखों के बन्धन से मुक्ति पाना अब असम्भव होता है, उन्हें
ना :: एक माटी