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सन्त की शरण लेने की आशा से घृत की सुवास आती है सन्त की नासा तक। और ज्य. ही, . ... ... .. ... ... ....: . नासिका में प्रवेश का प्रयास हुआ कि विरेचक-विधि की लात खा कर भागती-भागती आ घृत से कहती है, कि "सन्त की शरण, बिना आसिका है भीतर-विभीषिका पलती है वहाँ, वह नासिका बिनाशिका है सख की बिना शिकायत यहीं रहना चाहती हूँ अब मुझे वहाँ मत भेजो !"
लो, इधर"फिर से केसर ने भी अपना सर हिलाते हुए आश्चर्य प्रकट किया, कि अशरण को शरण देना तो दूर, उसे मुस्कान-पली दृष्टि तक नहीं मिली।
जिनके सर के केश रहे कहाँ काले, श्रमण भेष धारे वर्षों - युगों व्यतीत हुए पर, श्रामण्य का अभाव-सा लगता है सर होते हुए भी बिसर चुके हैं अपने भाव-धर्म। वह सर-दार का जीवन असर-दार कहाँ रहा ? अब सरलता का आसार भी नहीं, तन में, मन में, चेतन में।
380 :: मूक माटी