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पास यदि पाप हो तो छुपाऊँ, छपाने का साधन जुटाऊँ, औरों की स्वतन्त्रता वह यहाँ आ लुटती नहीं कभी, न ही किसी से अपनी मिटती है। किसी रंग-रोगन का मुझ पर प्रभाव नहीं, सदा-सर्वथा एक-सी दशा है मेरी इसी का नाम तो समता है इसी समता की सिद्धि के लिए ऋषि-महर्षि सन्त-साधु-जन माटी की शरण लेते हैं,
यानी
भू-शयन की साधना करते हैं और
समता की सखी, मुक्ति वह सुरों-असुरों-जलचरों और नभश्चरों को नहीं, समता-सेवी भूचरों को बरती है। अरी झारी, समझी बात ! माटी को वायली समझ बैठी तू पाप की पुतली कहीं की !"
और कुम्भ डूबता है मौन में
पाप की पुतली के रूप में झारी को मिला सम्बोधन इसको सुन कर
:: पूक मार्टी