________________
अब तक इधर
परिवार का भोजन 'आज का अनुभव न ही अभाव का
साधु वन कर
स्वाद से हट कर
संवाद की बात गौण हुई क्रम-क्रम से
प्रायः सव पात्रों ने
माटी के पात्र को उपहास का पात्र ही बनाया,
उसे मूल्यहीन समझा ।
प्रायः बहुमत का परिणाम यही तो होता है,
पात्र भी अपात्र की कोटि में आता है
1382 :: मुक्त भारी
फिर, अपात्र की पूजा में पाप नहीं लगता । दुर्जन- व्यसनी की भाँति
भाँति-भाँति के व्यंजनों ने
श्रमण की समता
अभिनय के रूप में ही देखी और
खुल कर
सेठ और श्रमण की अविनय की ।
न भव का
यथार्थ में,
बस
भोजन का प्रयोजन विदित हुआ,
पूर्ण हो चुका है, तो अनुभव
है'
साध्य की पूजा में डूबने से योजनों दूर वाली मुक्ति भी वह