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सेठ की प्रदक्षिणा लगाता मक्कण कहता है, कि .. "क्या कहें है सखे ! सही समय पर सही दिशा दी तुमने दम्भी लोभी-कृपण की परिभाषा दी तुमने, कब से चली आती कब तक चली जाती
यह
भ्रान्ति-निशा मिटा दी तुमने, मानव के सिवा इतर प्रांगण. .... अपने जीवन-काल में
परिग्रह का संग्रह करते भी कब ? इस बात को मैं भी मानता हूँ कि जीवनोपयोगी कुछ पदार्थ होते हैं, गृह-गृहणी घृत-घटादिक उनका ग्रहण होता ही है इसीलिए सन्तों ने पाणिग्रहण संस्कार को धार्मिक संस्कृति का संरक्षक एवं उन्नायक माना है। परन्तु खेद है कि लोभी पापी मानव पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।
प्रायः अनुचित रूप से सेवकों से सेवा लेते
AHG :: मुक माटी