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काई और छोर भी तो हो :
अस्तु,
हे स्वार्थ-कलश : तुम हो मशाल के समान, कलुषित आशयशाली
और माटी का कुम्भ है पथ-प्रदर्शक दीप-समान तामस-नाशी साहप्त सहस-स्वभावी !
:
स्वर्ण-कलश को मशाल की मम में .... .. ........ अपमान का अनुभव हुआ, एकाक्षिणी इस लेखनी ने मरी प्रशंसा के मिष इस निन्द्य-कार्य का सम्पादन किया, इसमें मेरा भी अपराध सिद्ध होता है, पर-निन्दा में मुझे निमित्त बनाया गया यूँ स्वयं को धिक्कारते हुए माटी के कुम्भ में दीर्घ श्वास लिया फिर, प्रभु से प्रार्थना प्रारम्भ :
'इन वैभव-हीन भन्यों की भवों-भवों में पराभव का अनुभव हुआ।
अव
पृ.
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