________________
पाप-भरी प्रार्थना सं प्रभु प्रसन्न नहीं होते, पावन की प्रसन्नता वह
पाप के त्याग पर आधारित है। मैंने अग्नि की परीक्षा दी है ऐसा बार-बार कह कर,
जो
अपने को निष्पाप सिद्ध करना चाहता है यह पाप ही नहीं अपितु महापाप है।
तुममें इतना पाप का संग्रह है कि जो युगों-युगों तक जलाने से जल नहीं सकता, धुलाने से धुल नहीं सकता। प्रलय के दिनों में जल की ही नहीं, अग्नि की वर्षा भी तेरे ऊपर हुई कई वार ! फिर भी, तरी कालिमा में कुछ तो अन्तर आता ? अरे और सुन ! बाहर से भले ही दिखती हैं काली मेघ-घटाओं से घिरी सावण की अमा की निशा-सी बबूल की लकड़ी भी बह अग्नि-परीक्षा देती हैं। और बार-बार नहीं, एक ही वार में
भूक मारी :: 373