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भीतर ही भीतर
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आँखों से संघर्ष करते
अपने अस्तित्व को ही खां देते हैं
और
घृणास्पद, दुर्गन्ध, बीभत्स गीड़ का रूप धारण कर विद्रूप वन बाहर आते हैं
यह रजकण
यह सब प्रभाव
जो हम पर पड़ा है
समता के धनी श्रमण का है"
अन्त में यूँ कह, सेठ
भोजन प्रारम्भ करता किं
पुनः कलश की ओर से व्यंगात्मक भाषा का प्रयोग हुआ-"अरे सुनो !
कोप के श्रमण बहुत बार मिले हैं
होश के श्रमण होते विरले ही, और
उस समता से क्या प्रयोजन जिनमें इतनी भी क्षमता नहीं है जो समय पर, भयभीत को अभय दे सके,
श्रय-रीत को आश्रय दे सके ? यह कैसी विडम्वना हे भव-भीत हुए बिना
श्रमण का प धारण कर
अभय का हाथ उठा कर, शरणागत की आशीष देने की अपेक्षा,
मूकमाटी
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