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बधार्ध में तुम सत्रणं हाते ता झिाव ... दिनकर का दुर्लभ दशन प्रतिदिन क्यों न होता तुम्हें ? हो सकता है दिवान्ध-तम प्रकाश स भय लगता हो तुम्हें, इसीलिए तो बहुत दूर भू-गर्भ में गाड़े जात हो तुम। सम्भव हैं रसातल में ग्स आता हो तुम्हें, तुम्हारी संगति करने वाला प्रायः दुर्गति का पथ पकड़ता है. या कहना असंगत नहीं है। तुम्हें देखने मात्र से बन्धन से साक्षात्कार होता है. वन्धन-वद्ध बन्धक भी हा तुम
भ्य और पर के लिए। परतन्ध जीवन की आधार शिना हो तुम, पूंजीवाद के अभेद्य दुर्गम किला हो तुम और अशान्ति कं अन्नहीन मिसिला !
टे, स्वयं कलश : ITE चार लो मेरा कहना मानो, का बना इन जीवन में, मा भाटी को अमाप मान झा भा। मां, मां, नाम लो अब !"
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