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हाय ! अकाल में ही जीवन से
हाथ धोना पड़ेगा क्या । दिन-पर-दिन कटते गये
कई दिन ! जब कारण ज्ञात हुआ शिल्पी के अदर्शन का प्रेमभरी मन्द-मुस्कान लाड़-प्यार की वात। गात पर हाथ सहलाता कोमल कर-पल्लवों का वह सहलाव संगीत के साथ आत्मसात् कराता शीतल सलिल का स्नेहिल सिंचन.. यह सब अतिशय अतीत का, स्मृति का विषय बन झलक आया गलाव-पौध के समक्ष । . . . . . . . : . ....: .:: .... ............ .
और पौध ने दृष्टिपात किया तुरन्त ! सुदर"प्रांगण में आसीन शिल्पी की ओर,
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भोग-भुक्ति से ऊब गया है चोग-भक्ति में डूब गया है, उसकी मति वह प्रभु-चरणों की दासी बनी है, पर मुखाकृति पर पतली हल्की-सी
उदासी बसी है !''सी' धर्म-संकट में पड़े स्वामी को देख गुलाब-पौध बोल उठा : "इस संकट का अन्त निकट हो,
मूक, पाटी :: 255