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सहज स्वाश्रित है
और
अनादि अनिधन !
विकासोन्मुखी अपनी अनुभूति चित्त की प्रसन्नता प्रशस्तता बताने उद्यमशील कुम्भ को देख, अग्नि स्वयं अपनी अति के विषय में कुछ-कुछ सकुचाती-सी कहती है, कि "अभी मेरी गति में अति नहीं आई है।
और सुनो ! अति की इति को छूना बहुत दूर ""अभी वह बहुत दूर है !
है
मेरा जलाना शीतल जल की "याद दिलाता है,
मेरा जलाना कटु-काजल का "स्वाद दिलाता है
यह नियम है कि,
प्रथम चरण में ग़म - श्रम
"निर्मम होता है,
मेरा जलाना जन-जन को जल
बाद पिलाता है
एतदर्थ "क्षमा धरना" "क्षमा करनाधर्म है साधक का
धर्म में रमा करना"!"
इन पंक्तियों को सुन कर कुम्भ के वल को साहस मिला, उत्साह के पदों में आई चेतना, और वह कम उता कि
मूकमाटी 283