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करते गिरि पर ग्रीष्म-दिन
दिनकर की अदीन छांव में। यूँ ! कम्भ ने भावना भाई सो, “भावना भव-नाशिनी' यह सन्तों की सूक्ति चरितार्थ होनी ही थी, सो हुई।
लो, इधर यह नगर के महासेठ ने सपना देखा, कि स्वयं ने अपने ही प्रांगण में भिक्षार्थी-महासन्त का स्वागत किया हाथों में माटी का मंगल कुम्भ ले। निद्रा से उठा, ऊषा में, अपने आप को धन्य माना और धन्यवाद दिया सपने को, स्वप्न की वात परिवार को बता दी। कुम्भकार के पास कुम्भ लाने प्रेषित किया गया एक सेवक, स्वामी की बात सुना दी सेवक ने,
सुन, हर्षित हो शिल्पी ने कहा : "दम साधक हुआ हमारा श्रम सार्थक हुआ हमारा
और हम सार्थक हुए।"
कुम्भकार की प्रसन्नता पर सेवक आर प्रसन्न हुआ,
2 :: पृक माटी
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