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प्रत्युत, अपनी स्फुरणशील कर-छुवन से उन्हें नचाता है गुन-गुन-गुंजन-गान सुनाता। बस, इसी भाँति पात्रों को दान दे कर . . दाता भी फूला न समाता, होता आनन्द-विभोर वह । अन्धकार घोर मिटता है, जीवन में आती नयी भोर वह और यही "तो
भ्रामरी-वृत्ति कही जाती सन्तों की ! यूँ तो श्रमण की कई वृत्तियाँ होती हैंजिनमें अध्यात्म की छवि उभरती है जो सुनी थीं सादर श्रुतों से आज निकट-सन्निकट हो खली आँखों से देखने को मिली।
परिणाम यह हुआ कि पूरा का पूरा परिवार सेठ का अपार आनन्द से भर आया और सेट के गौर-वर्ण के युगल-करों में माटी का कुम्भ शोभा पा रहा है
कनकाभरण में जड़ा हुआ नीलम-सा । उन करों और कुम्भ के बीच परस्पर प्रशंसा के रूप में कुछ बात चलती है, कि कुम्भ ने कहा सर्वप्रथम
334 :: मूक माटी