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तथापि भीतरी करुणा उमड़ पड़ी सीप से मोती की भाँति पात्र के मुख से कुछ शब्द निकलते हैं कि
"बाहर यह जो कुछ भी दिख रहा है सो'मैं "नहीं"हूँ
और . . ... ... . . . . . . . ... .... मेरा भी नहीं है। ये आँखें मुझे देख नहीं सकती मुझमें देखने की शक्ति है उसी का मैं स्रष्टा था"हूँ"रहूँगा, सभी का द्रष्टा था"हूँ"रहूँगा। बाहर यह जो कुछ भी दिख रहा है सो मैं"नहीं हूँ !"
यूं कहते-कहते पात्र के पद चल पड़े उपवन की ओर पीठ हो गई दर्शकों की ओर।
पात्र के पीछे-पीछे छाया की भांति कर में कमण्डलु ले
मूक मादी :: 345