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लौटना नहीं चाहती स्वामिन ! मानस छोड़ कर हंस की भाँति। तथापि खेद है, कि तन को भी मन के साथ होना पड़ता है मन का वेग अधिक हैं प्रभो ! बातों-बातों में बार-बार उद्वेग-आवेग से घिर आता है फिर, संवैग के वह पद्ध
आचरण की धरती पर टिक न पाते
फिर, निराधार वह क्या करेगा ?"" पहाड़ी नदी हो आषाढ़ी बाढ़ आई हो छोटे-छोटे वनचरों की क्या बात, हाथी तक का पता न चलता "बह जाता सब कुछ ! अपना ही किया हुआ कर्म आज बाधक बन उदय में आया है, चाहते हुए भी धर्म का पालन पहाड़-सा लग रहा है,
और मैं ? बौना ही नहीं, पंगु भी बना हूँ। बहुत लम्बा पथ है कैसे चलूँ मैं? गगन चूमता चूल है, कैसे चढूँ मैं कुशल-सहचर भी तो नहीं.. कैसे बहूँ मैं अब आगे !
क्या पूरा का पूरा आशावादी बनें ? क्या सब कुछ नियति पर छोड़ दूँ ?
मूक पाटी :: 347