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पात्र उसे लेता जाता, उदर-पूर्ति करना है ना ! इसी का नाम है गर्त-पूर्ण-वृत्ति समता-धर्मी श्रमण की !
भूखी गाय के सम्मुख जब घास-फूस चारा डाला जाता है ऊपर मुख उठा कर रक्षकों के आभरणों-आभूषणों को अंगों-उपांगों को नहीं देखती वह। बस इसी भाँति, भोजन के समय पर साधु की भी वृत्ति होती है
जो गोचरी-वृत्ति कही जाती है। ... ऐसा-वैसा कुछ भी विकल्प नहीं खारा हो, मीठा हो कैसा भी हो, जल हो झट बुझाते हैं घर में लगी आग को वस, इसी भाँति। सरस हो या नीरस कैसा भी हो, अशन हो उदराग्नि शमन करना है ना ! .
और यही अग्नि-शामक वृत्ति है श्रमण की सब वृत्तियों में महावृत्ति !
पराग-प्यासा भ्रमर-दल वह कोंपल-फूल-फलों-दलों का सौरभ सरस पीता है पर उन्हें, पीड़ा कभी न पहुँचाता;
मृग माटी :: 338