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विराग के प्रति अनुराग रखते; दोनों का ध्येय बन्धन से मुक्ति है फिर भला बताओ जरा ! मझें क्या चवन में :.:. :::: ::
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अब
मझे भी बन्धन रुचता नहीं मानती हूँ इस बात को कि विगत मेरा गलत है,
और किसका नहीं ? पतित है पलित-पकिल भी गलित है चलित-चंचल भी, परन्तु आज की स्थिति बदली हैं
गलत लत से बचना चाहता हूँ। पाप पुण्य से मिलने आया है विष पीयूष में घुतने आया है हे प्रकाश-पंज प्रभाकर । अन्धकार की प्रार्थना सुनो ! बार-बार भगाने की अपेक्षा एक बार इसे जगा दो, स्वामिन् ! अपने में जगह दो इसे मिटाओं या मिलाओ अपने में; प्रकाश का सही लक्षण वही है जो सबको प्रकाशित करे ! एक और धृष्टता की बात कहूँ कि 'भाग्यशाली भाग्यहीन को कभी भगाते नहीं, प्रभो ! भाग्यवान भगवान बनाते हैं।'
142 :: मृग माटी