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फिर भी तिथियों को अपने पास नहीं रखता बह, तिथियाँ काल के आश्रित हैं ना ! परिणतियाँ अपनी-अपनी निरी-निरी हुआ करती हैं, तिथियों के बन्धन में बँधना भी गतियों की गलियों में भटकना है। कचित् ! यतियों का बन्धन में बँधना वह नियति के रंजन में रमना है।" यूँ सतु-पात्र की होती रही मीमांसा।
इधर,
अबाधित आहार-दान चल रहा है
और ऐसा ही यह कार्य सानन्द-सम्पन्न हो, इसी भावना में संलग्न-मग्न हुआ है सेठ। उसके दोनों कन्धों से उतरती हुई दोनों बाहओं में लिपटती हुई, फिर दायें वाली बायीं ओर वायीं वाली दाहिनी ओर जा कटि-भाग को कसती हुई नीले उत्तरीय की दोनों छोर
नीचे लटक रही हैं। ऊपर देख नहीं पा रही है, कुम्भ की नीलिमा से वह पूरी तरह हारी है
36 :: मुक माटी