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मांसल हैं, प्रांजल भी जिनकी प्रांजलता में दाता के स्वर्णिम कुण्डल
अपनी प्रतिछवि के बहाने अपनी
तुलना
हम क्या कम हैं ?
बाल- भानु की भाँति हमसे आभा फूटती है गोल भी हैं, सुडौल भी सुवर्णवाले हैं, सुन्दर हैं स्वर्णवाले हैं, लोहित नहीं ।
398 मूक माटी
फिर भी,
कपोल-कान्ति में, इस कान्ति में अन्तर क्यों ?
कौन - सी न्यूनता है हममें ? कौन जानता इस भेद को
लो ! उलझन में उलझे कुण्डलों को कपोलों का उद्बोधन :
करते हैं कपोलों से -
किसे पूछें ? पूछें भी कैसे ?
"तुम्हें देखते ही दर्शकों में
राग जागृत होता है
और
हमें देखते ही सहज
वत्सल भाव उमड़ता है,
रागी भी खो जाता है विसगता में कुछ पल,
हमारे भीतर संगृहीत
वत्सल भाव वह, ऊपर आ