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तुरन्त, दूसरी ओर से स्वर्ण-कलश आगे बढ़ाया गया जिसमें स्वादिष्ट दुग्ध भरा है, फिर भी अंजुलि अनखुली देख तीसरे ने रजत-कलश दिखाया जिसमें मधुर इक्षुरस भरा है,
जब
वह भी उपेक्षित ही रहा, तब
स्फटिक झारी की बारी आई अनार के लाल रस से भरी तरुणाई की अरुणाई-सी ! आश्चर्य ! अतिथि की ओर से उस पर भी एक बार भी दृष्टि ना पड़ी ! विवश हो निराशा में बदली वह झारी। अब अधिक विलम्ब अनुचित है। अन्तराय मानकर बैठ सकता है, बिना भोजन अतिथि जा सकता हैयह आशंका परिवार के मुख पर उभरी,
और मन में प्रभु का स्मरण करते किसी तरह, धृति धारते पूरी तरह शक्ति समेट कर, कैंपते-कपते करों से माटी के कुम्भ को आगे बढ़ाया सेठ ने।
अतिथि की अंजुलि खुल पड़ती है स्वाति के धवलिम जल-कणों को देख सागर-उर पर तैरती शुक्तिका की भाँति !
पूक माटी :: 381