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"पात्र से प्रार्थना हो
पर अतिरेक नहीं,
भाँति-भाँति की भ्रान्तियाँ यूँ दाताओं से होती गईं, "हाँ! हा !
यही स्थिति हमारी भी हो सकती है"
यूँ कुम्भ ने कहा सेठ को
और
सेठ को सचेत किया
इस समय सब कुछ भूल सकते हैं
पर विवेक नहीं।
तन, मन और वचन से दासता की अभिव्यक्ति हो,
पर उदासता की नहीं । अधरों पर मन्द मुस्कान हो, पर मज़ाक नहीं ।
उत्साह हो, उमंग हो
पर उतावली नहीं ।
अंग-अंग से
विनय का मकरन्द झरे,
पर, दीनता की गन्ध नहीं ।
और
इसी सन्दर्भ में सुनी थी सन्तों से एक कविता,
सो सुनो, प्रस्तुत है, आदृत है बुध-स्तुत है :
धरती को प्यास लगी है
नीर की आस जगी है
मूकमाटी 319