________________
कई बार पात्र मिले पर, भावना जगी नहीं आज भावना बलवती बन पड़ी है, इस अवसर पर भी यदि
स्पर्शन हो, पर हर्षन नहीं, भावना भूखी रहेगी"! तो फिर कन" भूख की शान्ति वह ? आज का आहार हमारे यहाँ हो, बस ! इस प्रसंग में यदि दोष लगेगा तो" मुझे लगेगा, आपको नहीं स्वामिन् ! हे कृपा-सागर, कृपा करो देर नहीं, अब दया करो।"
दाता की इस भावुकता पर मन्द-मुस्कान-भरी मुद्रा को मौनी मुनि मोड़ देता है और चार हाथ निहारता-निहारता पथ पर आगे बढ़ जाता है। तब तक दाता के मुख से पुनः निराशा-घुली पंक्ति निकली : "दाँत मिले तो चने नहीं, चने मिले तो दाँत नहीं,
और दोनों मिले तो". पचाने को आँत नहीं"!"
118 :: मूक मार्टी