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० के कर्ण की सादर अतिथि को बुला रहे हैं।
अभय का आयतन अतिथि आ रुकता है प्रांगण में निराकुल, अविचल ...
फिर क्या कहना ! अहोभाग्य मानता हुआ
धन्य धन्य कहता हुआ अतिथि को दायीं ओर
अतिथि से
दो-तीन हाथ दूर से प्रदक्षिणा प्रारम्भ करता है सेठ
सपत्नीक, सपरिवार !
आज का यह दृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा है,
कि
ग्रह-नक्षत्र - ताराओं समेत
रवि और शशि
मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा दे रहे हैं,
तीन प्रदक्षिणा दी गईं,
जीव दया- पालन के साथ ।
पुनः नमस्कार के साथ,
नवधा भक्ति का सूत्रपात होता है :
'मन शुद्ध है
वचन शुद्ध है तन शुद्ध है
और
अन्न-पान शुद्ध है आइए स्वामिन्!
मूकमाटी 328