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पुनश्च,
बद्धांजलि हो पूरा परिवार प्रार्थना करता है पात्र से कि "भो स्वामिन् ! अंजुलि-मुद्रा छोड़ कर भोजन ग्रहण कीमि . . . . . . . .: :: :. .... .........:
दान-विधि में दाता को कुशल पा अंजुलि छोड़, दोनों हाथ धो लेता है पात्र और जो मोह से मुक्त हो जीते हैं राग-रोष से रीते हैं जनम-मरण-जरा-जीर्णता जिन्हें छू नहीं सकते अब क्षुधा सताती नहीं जिन्हें जिनके प्राण प्यास से पीड़ित नहीं होते, जिनमें स्मय-विस्मय के लिए पल-भर भी प्रश्रय नहीं, जिन्हें देख कर भय ही भयभीत हो भाग जाता है सप्त-भयों से मुक्त, अभय-निधान, निद्रा-तन्द्रा जिन्हें घेरती नहीं, सदा-सर्वथा जागृत-मुद्रा स्वेद से लथ-पथ हो वह मात्र नहीं, खेद-श्रम की
वह बात नहीं; जिनमें अनन्त बल प्रकट हुआ है, परिणामस्वरूप जिनके निकट कोई भी आतंक आ नहीं सकता जिन्हें अनन्त सौख्य मिला है “सो
326 :: मूक माटी