________________
कुम्भ ने अपना दर्शन किया और
धन्य ! धन्य ! कह उठा। जय, जय, गुरुदेव की ! जय, जय, इस घड़ी की ! विचार साकार जो हुए पथ-गत-पीड़न-वेदन जो कुछ बचा-खुचा कालुष्य सरकः रा- ना को ..:: ... . . . . . . . . यहीं पर अर्पण किया : 'शरण, चरण हैं आपके, तारण-तरण जहाज, भव-दधि तट तक ले चलो करुणाकर गुरुराज !' यूँ गुरु-गुण-गान करते विघ्न-विनाशक, विभव-विधायक अभिषेक सम्पन्न हुआ, प्रक्षालन भी। आनन्द से भरे सब ने गन्धोदक मस्तक पर लगाया, परिवार सहित इन्द्र की भाँति सेठ लग रहा है।
इसी क्रम में अब, यथाविधि, यथानिधि यथाज्ञात-सन्निधि स्थापना-पूर्वक, अष्ट-मंगल द्रव्य ले जल-चन्दन-अक्षत-पुष्पों से चरु-दीप-धूप-फलों से पूजन-कार्य पूर्ण हुआ पंचांग प्रणामपूर्वक !
मूक मार्टी :- 325