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मुख-पात्र खोला है कृत संकल्पिता हैं धरती
दाता की प्रतीक्षा नहीं करना है दाता की विशेष समीक्षा नहीं करना है अपनी सीमा, अपना आँगन भूल कर भी नहीं लाँघना है..
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कारण
पात्र की दीनता निरभिमान दाता में मान का आविर्माण कराती है पाप की पालड़ी फिर भारी पड़ती है वह,
और स्वतन्त्र स्वाभिमान पात्र में परतन्त्रता आ ही जाती हैं, कर्तव्य की धरती धीमी-धीमी नीचे खिसकती है, तब क्या होगा ? दाता और पात्र
दोनों लटकते अधर में। तभी तो... काले-काले मेघ सघन ये अर्जित पाप को पुण्य में ढालने जो सत्-पात्र की गवेषणा में निरत हैं, पात्र के दर्शन पा कर भाव-विभोर गदगद हो
320 :: मूक मारी