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तुम्हें निमित्त बना कर अग्नि की अग्नि-परीक्षा ले रहा हूँ।
दूसरी बात यह है कि मैं एक स्वामी का सेवक ही नहीं हूँ वरन् जीवन-सहायक कुछ वस्तुओं का
स्वामी हूँ, सेवन-कर्ता भी। वस्तुओं के व्यवसाय, लेन-देन मात्र से उनकी सही-सही परख नहीं होती अर्थोन्मुखी दृष्टि होने से जब कि ग्राहक की दृष्टि में वस्तु का मूल्य वस्तु की उपयोगिता है। वह उपयोगिता ही भोक्ता पुरुष को कुछ क्षण सुख में रमण कराती है।" सो, यह ग्राहक बन कर आया है और कुम्भ को हाथ में ले कर सात बार बजाता है, सेवक। प्रथम बार कुम्भ से 'सा' स्वर उभर आया ऊपर फिर, क्रमशः लगातार रेगमपध'"नि निकल कर नीराग नियति का उद्घाटन किया अविनश्वर स्वर-सम। कुल मिला कर भाव बह निकला -.
304 :: मृक माटी