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सन्तों की, गुणवन्तों की सौम्य-शान्त-छविवन्तों की जय हो ! जय हो ! जय हो ! पक्षपात से दूरों की यथाजात यतिशूरों की दया-धर्म के मूलों की साम्य-भाव के पूरों की जय हो ! जय हो ! जय हो ! भव-सागर के फूलों की शिव-आगर के चूलों की : "सब-कुछ राहे धोरों -5..
विधि-मल धोते नीरों की जय हो ! जय हो ! जय हो !
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अब तो"और आसन्न आना हुआ अतिथि का ! प्रारम्भ के कई प्रांगण पार कर गये, पथ पर पात्र के पावन पद पल-पल आगे बढ़ते जा रहे, पीछे रहे प्रांगण-प्राणों पर पाला-सा पड़ गया वह पुलक-फुल्लता नहीं उनमें ! भास्कर ढलान में ढलता है इधर, कमल-बन म्लान पड़ता है, फिर भी पात्र पुनः लौट आ सकता है यूँ, आशा भर जगी है उनमें।
मृक माटी :: 315