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कभी बरसते नहीं, अनुकूल मित्रों पर कभी हरसते नहीं,
ख्याति-कीर्ति-लाभ पर
कभी तरसते नहीं। कर नहीं, सिंह-सम निर्भीक किसी से कुछ भी माँग नहीं भीख, प्रभाकर-सम परोपकारी हो प्रतिफल की और कभी भूल कर भी ना निहारें, निद्राजयी, इन्द्रिय-विजयी जलाशय-सम सदाशयी मिताहारी, हित-मित-भाषी चिन्मय-मणि के हों अभिलाषी; निज-दोषों के प्रक्षालन हेतु आत्म-निन्दक हों पर निन्दा करना तो दूर पर-निन्दा सुनने को भी जिनके कान उत्सुक नहीं होते
''कहीं हों बहरे ! यशस्वी, मनस्वी और तपस्वी
हो कर भी, अपनी प्रशंसा के प्रसंग में जिनकी रसना गूंगी बनती है।
सागर - सरिता - सरवर - तर पर जिनकी शीत-कालीन रजनी कटती, फिर
मृक माटी :: 30]