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पात्र-दान अतिथि-सत्कार। परन्तु, पात्र हो पूत-पवित्र पद-यात्री हो, पाणिपात्री हो पीयूप-पायी हंस-परमहंस हो, अपने प्रति बज्र-सम कठोर पर के प्रति नवनीत''
"मुदु और पर की पीड़ा को अपनी पीड़ा का प्रभु की ईडा में अपनी क्रीड़ा का संवेदन करता हो। पाप-प्रपंच से मुक्त, पूरी तरह पवन-सम निःसंग परतन्त्र-भीरु, दर्पण-सम दर्प से परीत हरा-भरा फूला-फला पादप-सम विनीत। नदी-प्रवाह-सम लक्ष्य की ओर अरुक, अथक गतिमान।
मानापमान समान जिन्हें, योग में निश्चल मेरु-सम, उपयोग में निश्छल धेनु-सम, लोकैषणा से परे हों मात्र शुद्ध-तत्त्व की गवेषणा में परे हों; छिद्रान्वेषी नहीं गुणग्राही हों, प्रतिकूल शत्रुओं पर
301 :: मूक माटी