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वह रोग कहाँ वह बदन कहाँ और वह आग का सदन कहाँ ?
इन कानों ने, आँखों ने
और हाथों ने सुने, देखे, हुए थे स्वप्न में ? अक्षरशः स्वप्न असत्य निकला, स्वप्न का घातक फल टला।।
'कुम्भ की कुशलता सो अपनी कुशलता' यूँ कहता हुआ कुम्भकार सोल्लास स्वागत करता है अवा का, और रेतिल राख की राशि को, जो अवा की छाती पर थी हाथों में फावड़ा ले, हटाता है। ज्यों-ज्यों राख हटती जाती, त्यों-त्यों कुम्भकार का कुतुहल बढ़ता जाता है, कि
कब दिखे वह कुशल कुम्भ लो, अब दिखा ! राख का रंग कुम्भ का अंग दोनों एक - दोनों संग । सही पहचान नहीं पाती आँखें ये अनल से जल-जल कर काली रात-सी कुम्भ की काया बनी है।
15 :: मुक माटी