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जिन आँखों में
अतीत का ओझल जीवन ही नहीं, आगत जीवन भी स्वप्निल - सा धुंधला-धुंधला-सा तैरने लगा,
.. और 47, 1 उदयन
सर
भावी, सम्भावित शकिल-सा
कुल मिला कर सब कुछ धूमिल - धूमिल - सा बोझिल - सा झलकने लगा ।
सन्ध्या - वन्दन से निवृत्त हो कुम्भकार ने बाहर आ देखाप्रभात - कालीन सुनहली धूप दिखी धरती के गालों पर
जो ठहर न पा रही हैं;
ऊषा काल से पूर्व प्रत्यूष से ही उसका उर उतावला हो उठा है
आज अबा का अवलोकन
करना है उसे !
कुम्भ ने अग्नि परीक्षा दी
और
अग्नि की अग्नि परीक्षा ली, शत-प्रतिशत फल की आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है, फिर भी मन को धीरज कहाँ
29 मूकमाटी
और कब ? विपरीत स्वप्न जो दिखा..! अपनी ओर बढ़ते शिल्पी के चरण देख कुम्भ की ओर से स्वयं अवा ने कहा : हे शिल्पी महोदय !