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मृत्यु के मुख में पत ढकेलो मुझे ! आगामी आलोक की आशा दे कर आगत में अन्धकार मत फैलाओ ! अब वह उष्णता सही नहीं जाती, सहिष्णुता की कमी क्रमशः इसमें आती जा रही है। इस जीवन को मत जलाओ शीतल जल ला पिलाओ इसे !
चाहो इसे जिलाओ, माँ !" जब धरती माँ की ओर से आश्वासन-आशीर्वचन भी नहीं मिले तब कुम्भ ने कुम्भकार को स्मरण में ला, कहा"क्या त्राण के सब-के-सब धाम कहीं प्रयाण कर गये । कुम्भ के कारक और पालक हो कर आप भी भूल गये इसे ? अब ये प्राण जल-पान बिन सम्मान नहीं कर पाएंगे किसी का।
वानी,
इनका प्रयाण निश्चित है, ये अग्नि-परीक्षा नहीं दे सकते अब, कोई प्रतिज्ञा छोटी-सी भी मेरु-सी लग रही हैं इन्हें, आस्था अस्त-व्यस्त-सी हो गई, भावी जीवन के प्रति उत्सुकता नहीं-सी रही ।
अफसोस है, कि अब सोच रहा हूँ
292 :: मुक माटी