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प्रखर चिन्तकों दार्शनिकों तत्त्व- विदों से भी ऐसी अनुभूतिपरक पंक्तियाँ प्रायः नहीं मिलतीं जो आज अग्नि से सुनने मिलीं।
यूँ सोचता हुआ कुम्भ दर्शन की अबाधता
और
अध्यात्म की अगाधता पाने अग्नि से निवेदन करता है पुनः क्या दर्शन और अध्यात्म
एक जीवन के दो पद हैं ? क्या इनमें पूज्य पूजक भाव है ? यदि "हो" "तो"
पूजता कौन और पुजता कौन ? क्या इनमें
कार्यकारण भाव है ?
यदि "हो"तो"
कार्य कौन और कारण कौन ? इनमें
बोलता कौन है और मौन कौन ? ध्यान की सुगन्धि किससे फूटती है ? उसे कौन सूँघता है
अपनी चातुरी नासा से ? मुक्ति किससे मिलती हैं ? तृप्ति किससे मिलती हैं ?
बस, इन दोनों की मीमांसा सुनने मिले इस युग की !
मूकमाटी 257