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और कर्तव्य की सत्ता में पूरी तरह टूव गया है, अव मौन मुस्कान पर्याप्त नहीं, आपके मुदित मुख से
बस,
बचना चाहता है, प्रभो ! परिणाम-परिधि से अभिराम-अवधि से अब यह बचना चाहता है, प्रभो ! रूप - सरस से गन्ध परस से रहित परे अपनी रचना चाहता है, विभो ! संग-रहित हो जंग-रहित हो शुद्ध लोहा अब ध्यान-दाह में बस पचना चाहता है, प्रभा !"
प्रभु की प्रार्थना, कुम्भ की तन्मयता ध्यान-दाह की बात, ज्ञान-राह की बात सुन कर, अग्नि बोलती हैं बीच में : 'युगों-युगों की स्मृति है, बहुतों से परिचित हूँ, साधु-सन्तों की संगति की है !
मूक माटी :: 285