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मनवांछित फल मिलना ही उद्यम की सीमा मानी है:इस सूक्ति को स्मृति में रखता हूँ । यही कारण हैं कि,
पथ में विश्राम करना
यह पथिक नहीं जानता ।
प्रभु से निवेदन- फिर से अपूर्व शक्ति की मांग !
भुक्ति की ही नहीं, मुक्ति की भी
चाह नहीं हैं इस घट में
वाह वाह की परवाह नहीं है
प्रशंसा के क्षण में ।
दाह के प्रवाह में अवगाह करूँ
परन्तु, आह की तरंग भी
कभी नहीं उठे
इस घट में संकट में।
इसके अंग-अंग में
रग-रग में
विश्व का तामस आ भर जाय
कोई चिन्ता नहीं,
किन्तु, विलोम भाव से
यानी
तामस सम`ता'!
284 : मूकमाटी
हे स्वामिन्, और सुनी व्यक्तित्व की सत्ता से पूरी तरह कब गया है यह