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अग्नि की शुद्ध-सुरिभ को सूँघने हेतु उतावली करती है।
थे
कुम्भ के लोचन बन्द-से हुए धूम के कारण अन्ध-से हुए थे अब वह खुल गये हैं, शुद्ध अग्नि की आभा - चन्दन से जामता के हटने छँटने से ..... अरुण अरविन्द बन्धु के उदय से कमल से खिल गये हैं।
कुम्भ की पहली दृष्टि पड़ी निर्विकार - निर्धूम अग्नि पर । दूसरी दृष्टि के लिए
दूसरा दृश्य ही नहीं मिला
द्रष्टा ने दृष्टि को सब ओर दौड़ा दिया एक ही दृश्य मिला, चारों ओर फैला अग्नि अग्नि अग्नि!
282 : पूक पाटी
भाँति-भाँति की लकड़ियाँ सब पूर्व की भाँति कहाँ रहीं अब ! सबने अग्नि को आत्मसात् कर ली ...पी डाली उसे बस !
या, इसे यूँ कहूँ-
अग्नि को जन्म दे कर अग्नि में लीन हुई वह
प्रति वस्तु उन्हीं भावों से मिटती भी वह,
जिन भावों को जन्म देती है
वहीं समाहित होती है । यह भावों का मिलन-मिटन