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कुम्भ का आशय विदित हुआ अग्नि को लो, मुख मुदित हुआ कुम्भकार का ! शिल्पी के मुख पर, पूर्ण खुल कर निराशा की रेखा, आशा-विश्वास में पूरी तरह बदल कर आलसी नहीं, निरालसी लसी।
लो, देखते-ही-देखते सुर-सुराती सुलगती गई अग्नि समूचे अवा को अपने चपेट में लेती छोटी-बड़ी सारी लकड़ियों को अपने पेट में समेट लेती ! . . . .. अषाढ़ी घनी गरजती भीतिदा मेघ घटायें-सी कज्जल-काली धूम की गोलियाँ अविकल उगलने लगा अवा। अवा के चारों ओर लगभग तीस-चालीस गज क्षेत्र प्रकाश से शून्य हो गया"सो ऐसा प्रतीत होने लगा, कि तमप्रमा महामही ही कहीं विशुद्धतम तम को ऊपर प्रेषित कर रही हो ! धूमिल-क्षोभिल क्षेत्र से बाहर आ देखा शिल्पी ने, अवा दिखा ही नहीं उसे इतनी भयावह यहाँ की स्थिति है बाहरी
फिर, भीतरी क्या पूछो ! पूरा-का-पूरा अवा धूम से भर उठा तीव्र गति से धूम घूम रहा है अवा में
278 :: मूक पाटी