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एक और हत्या की कड़ीजुड़ी जा रही, इस जीवन से। अब कड़वी घूट ली नहीं जाती कण्ठ तक भर आई है पीड़ा, अब भीतर अवकाश ही नहीं है, चाहे विष की घूट हो या पीयूष की कुछ समय तक पीयूष का प्रभाव पड़ना भी नहीं है इस जीवन पर ! जो विषाक्त माहौल में रहता हुआ विष-सा बन गया है।
'आशातीत विलम्ब के कारण अन्याय न्याय-सा नहीं न्याय अन्याय सा लगता ही है।'
और यही हुआ
इस युग में इसके साथ। लड़खड़ाती लकड़ी की रसना रुकती-रुकत्ती फिर कहती हैं"निर्बल-जनों को सताने से नहीं, बल-संबल दे बचाने से ही बलवानों का बल सार्थक होता है।"
इस पर झुब्ध हुए बिना मृदु ममता-मथ मख से मिश्री-मिश्रित मीठे वचन कहना है शिल्पी, कि "नीचे से निर्वल को ऊपर उटाते समय उसके हाथ में पीड़ा हो सकती है, उसमें उठाने वाले का दोष नहीं,
272 :: भूक माटी