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उसकी शोकाकुल मुद्रा कुछ कहने का साहस करती है, कि “जन्म से ही हमारी प्रकृति कड़ी है हम लकड़ी जो रहीं लगभग धरती को जा छू रही हैं हमारी पाप की पालड़ी, भारी हो पड़ी है।
हमसे बहुत दूर पीछे पुण्य की परिधि किछुड़ी है क्षेत्र की ही नहीं, काल की भी दूरी हो गई है पुण्य और इस पतित जीवन के बीच में.. कभी-कभी हमें बनाई जाती कड़ी से और कड़ी छड़ी अपराधियों की पिटाई के लिए । प्रायः अपराधी-जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते,
और उन्हें पीटते-पीटते टूटती हम। इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ? यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है या
मनमाना 'तन्त्र' है ! इस अनर्थ का फल-रस हमें भी मिलता है चखने को,
और यह जो हमें निमित्त बना कर निरपराध कुम्भ को जलाने की साध चली है
मूक माटी :: 271