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धरती के कण ये तरसने लगे। यूँ, पूरा का पूरा माहोल डूब गया, परसन में, दरशन में, हरसन में और तरसन में :
स्वम्भ अवस्था की ओर लीयते :.::: .. . . .. .. कुम्भकार को देख कुम्भ ने कहा,
परीषह-उपसर्ग के बिना कभी स्वर्ग और अपवर्ग की उपलब्धि न हुई, न होगी त्रैकालिक सत्य है वह !
गुप्त-साधक की साधना-सी अपक्व-कुम्भ की परिपक्व आस्था पर आश्चर्य हुआ कुम्भकार को, और वह कहता है"आशा नहीं थी मुझे कि अत्यल्प काल में भी इतनी सफलता मिलेगी तुम्हें । कठिन साधना के सम्मुख बड़े-बड़े साधक भी हाँपते, घुटने टेकते हुए
मिले हैं यहाँ ! अब विश्वस्त हो चुका हूँ पूर्णतः मैं, कि पूरी सफलता आगे भी मिलेगी, फिर भी, अभी तुम्हारी यात्रा
266 :: मूक माटी