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योगी को आमन्त्रित करना है मन्त्रित करना है बाहर आने को !
निजी-निजी नीड़ों को छोड़ बाहर आ बन-बहार निहारता पंछी-दल का चहक भी चाह के अभाव में शिल्पी के कणों को सरंग-क्रम से जा टू नहीं सका और शून्य में लीन हो गया वह। यानी, श्रवणीय चहक के ग्राहक
नहीं बने शिल्पी के कर्ण बह। ऐसी विशेष स्थिति में दूरज हो कर भी स्वयं रजविहीन सूरज ही सहस्रों करों को फैला कर सुकोमल किरणांगुलियों से नीरज की बन्द पाँखुरियों-सी शिल्पी की पलकों को सहलाता है।
इस सहलाय में शिल्पी को अनुभूत हुआ माँ की ममता का मृदु-स्नेहिल परस।
आँखें विस्फारित हुई हुआ अपार क्षमता का सदन आलोकधाम दिनकर का दरश। दूर से दरश पा कर भी लोचन हरस से बरसने लगे, और इधर.. भक्ति के धवत्तिम कणों में स्नपित - शान्त होने
मूक माटी :: 25